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Writer's pictureDr. P.K. Shrivastava

डेयरी फार्म व्यवसाइयों की चुनौतियाँ, कारण और निदान – भाग 1

Updated: Jan 7

भूमिका:


भारत एक कृषि प्रधान देश होने, विश्व में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक होने और आजादी के करीब 72 वर्षों के बीत जाने के बाद भी, आज यहाँ डेयरी व्यवसाय करीब 80-90% छोटे उत्पादकों के हाथ में है। भारत में स्वचालित डेयरी फार्म प्रबंधन, उसमें कार्य करने वाले कर्मचारियों का प्रशिक्षण, उनकी नौकरी की सुरक्षा, पशु-राशन और उत्तम प्रजनन व्यवस्था, पशु, दुग्ध और प्रजनन के आँकड़ों का रख रखाव, भविष्य में नये एसेट के लिए धन का प्रावधान, डेयरी व्यवसाय पर लगाए गए निवेश को वापस लाने हेतु प्रावधान, आदि आज भी अपने शैशव -काल में ही हैं। आज भी कुल दुग्ध व्यवसाय का केवल 26% ही संगठित हाथों में है, बाकी 74% असंगठित हाथों में , जिसका मुख्य कारण है भारत में फार्म के दूध के प्रति उपभोक्ता की आस्था। आज भारत में प्रतिपशु प्रति ब्यांत दुग्ध उत्पादन पश्चिमी देशों के प्रति-पशु उत्पादन की अपेक्षा अत्यंत कम है।


जहाँ भारत के दुधारू पशु अभी 2500 लीटर प्रति ब्यांत तक पहुँचने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं, वहीं विकसित देशों में पशु करीब 5500 -6000 लीटर प्रति ब्यांत दूध का औसत देते हैं। हमारे यहाँ की देशी नस्ल की गायें तो अभी भी 1100-1200 लीटर प्रति ब्यांत पर ही हैं और भैंसें 1800-1900 लीटर प्रति ब्यांत पर। इस देश में पशु अपने उच्च (peak) उत्पादन को ज्यादा देर तक बनाए नहीं रख पाता। आज भी दुधारू क्रॉस-ब्रीड गाय 32-34 माह में और भैंस 46-48 महीने में ही पहला बच्चा दे पाती है । गाय प्रति 15-18 महीने में एक बच्चा दे दे तो गनीमत है, जबकि भैंस प्रति 22-24 महीने में ही एक बच्चा दे पाती है (जबकि गाय को प्रति वर्ष और भैंस को प्रति 15 माह में एक बच्चा दे देना चाहिए)। इसका मुख्य कारण जानवरों में कुपोषण है। भारत में आज भी हरे चारे के लिए खेत का आबंटन औसत अनाज और व्यवसायी खेती की अपेक्षा अत्यंत कम है।



Figure 1: दो जानवरों के लोन पर डेयरी: फ़ोटो: डॉ पी के श्रीवास्तव, डेयरी व्यवसाय कॉन्सल्टेन्ट, बैंगलोर


सहकारी और सरकारी डेयरियाँ:


दुग्ध व्यवसाय में संगठनात्मक विकास की बात करें तो (कुछ एक सहकारी डेयरियों को छोड़ दें) तो निजी डेयरियों की ओर ही नजर पड़ती है। सहकारी डेयरियाँ तो ज्यादातर सरकारी सहयोग की ओर ताकती हुई दिखतीं हैं। यह तो तब है जबकि सहकारी डेयरियों को सहयोग, उनके जन्म से ही मिलता रहा है, आज भी मिल रहा है। एन.डी.पी. (1 तथा 2), दोनों योजनाएं मुख्यतः सहकारी डेयरियों के सहायता के लिए ही है। निजी डेयरी (गिने चुने को छोड़कर) को आज भी सरकारी योजनाओं की तरफ से वंचित ही रहना पड़ता है। वर्तमान में सहकारी और निजी डेयरियों का दुग्ध प्रोसेसिंग करीब 47:53 के अनुपात में ही है। यहाँ तक कि ज्यादातर उपभोक्ता सहकारी डेयरियों को सरकारी डेयरी ही मानते हैं, क्यूंकि ज्यादातर सहकारी डेयरियों में प्रबंधन सरकारी नुमाइंदों के हाथ में ही होता है।


पक्षपात तब भी दिख जाता है जब एक ही गाँव में सहकारी डेयरियों के दुग्ध उत्पादक एक लीटर दुग्ध देने के लिए 3 से या 5 रुपये सरकारी अनुदान पाते हैं, जो निजी डेयरियों में दुग्ध देने वाले उत्पादकों को नहीं मिलता है। मेरे विचार से इस व्यवस्था से धीरे धीरे सहकारी डेयरियों में कार्य-प्रणाली शिथिल होती जा रही है। जब किसी व्यवसाय को चलाने हेतु सरकारी अनुदान 4-5 रुपये प्रति लीटर मिल ही जाता हो तो भला उस संस्था की कार्य-प्रणाली में गति कैसे और क्यूँ आएगी? शायद इस 3-5 रुपये प्रति लीटर अनुदान देने का कोई राजनीतिक पहलू भी हो, क्यूंकि देश के कई राज्यों में ये व्यवस्था लागू है, और इसकी मांग अन्य राज्यों से लगातार उठती भी रहती है।


सहकारी डेयरियों के संचालन सरकारी नुमाइंदों के हाथ में होने और सरकार से लगातार अनुदान मिलते रहने की स्थिति में ये डेयरियाँ दुग्ध उत्पादकों से दूध संकलन कभी भी बंद नहीं कर पातीं। हालाँकि यह व्यवसाय चलाने वाले का निर्णय होना चाहिए कि “व्यवसाय में जितना बेंचें उतना ही दुग्ध संकलित करें”। निजी डेयरियाँ अपने दुग्ध संकलन को अपने बिक्री के अनुसार रखतीं हैं और लाभ कमातीं हैं। जो संस्था, चाहे सहकारी हो या निजी, “जितना बेंच पाएं उतना ही दुग्ध संकलित करने के नियम” पर चलतीं हैं, वो हमेशा लाभ में पाई जातीं हैं।


सरकार के दबाव में सहकारी डेयरियाँ अपने दूध बेंच पाने की क्षमता से कहीं ज्यादा दुग्ध संकलन करतीं रहतीं हैं और नहीं-बिके दूध का नित्य पाउडर और फैट (कॉनजर्व कॅमोडिटी) बनाकर भंडारण करतीं रहतीं हैं। ये पाउडर और फैट, कई बार अपने उपयोग से बहुत ज्यादा इकट्ठे हो जाने के कारण, घाटे का सौदा बन जाते हैं । ऐसी स्थिति निजी डेयरियों में कम ही आती है, क्यूंकि वो अपने भावी बाज़ार के अनुसार ही पाउडर और फैट का भंडारण करतीं हैं, भले ही उन्हें अपना दुग्ध संकलन कुछ समय के लिए बंद ही क्यूँ न करना पड़े।


सोशल मीडिया पर मिलता ज्ञान:


डेयरी व्यवसाय के बारे में अकसर यू ट्यूब या अन्य सोशल मीडिया पर ऐसा वीडिओ दिखता है, जिसमें डेयरी व्यवसाय चलाना एकदम ही आसान बताया जाता है, साथ ही तमाम सरकारी योजनाओं के अंतर्गत लोन मिलने की भी बात बताई जाती है। परंतु पाठक जान लें कि ये वीडिओ अति सूक्ष्म स्तर के पशुपालन, जिसमें सिर्फ 2,4,8, 10 पशु ही रखे जाते हों, की बात की जाती है। यहाँ ज्यादा से ज्यादा 5-8 लाख के लागत की ही बात की जाती है। सच है, कि ऐसे ऋण पर सब्सिडी भी मिलती है। जो 25% (साधारण वर्ग के लिए) और 33.33% (एस. सी./एस. टी. के लिए) होती है। सोचें, यदि यह योजना आपको मिल भी जाए तो क्या 80-100 लीटर प्रतिदिन दूध उत्पादन से आप एक सफल डेयरी व्यवसायी बन पाएंगे? कभी नहीं। आपको मजबूरन किसी न किसी नजदीक के डेयरी में अपने फार्म का दूध बेंचना होगा, आप बस एक दुग्ध उत्पादक ही बन पाएंगे, डेयरी व्यवसायी नहीं। यदि आप एक सफल दुग्ध व्यवसायी बनना चाहते हैं तो इन वीडियो पर ध्यान न दें और अपना पैसा बर्बाद न करें।


दुग्ध व्यवसायी और दुग्ध उत्पादक में अंतर:


इसे इस प्रकार से समझें, कि जबतक आप अपना दूध उपभोक्ता तक नहीं पहुंचाते, आप को डेयरी व्यवसाय में पूर्ण लाभ नहीं मिलता है। आप 5-10 जानवर का डेयरी लगाकर कभी भी दूध को खाद्य-सुरक्षित (Food Safety) रूप से उपभोक्ता तक नहीं पहुँचा सकते। इस स्तर के डेयरी से सभी खर्च नहीं निकल पाते। चूँकि छोटा किसान अपने लेबर का खर्च नहीं जोड़ता और घर में उपलब्ध चूनी-चोकर ही जानवरों को खिला कर पालता है, अतः दुधारू जानवर को संतुलित आहार नहीं मिलने के कारण वो (1) जल्दी ही आपना दूध कम कर देता है, (2) समय से गाभिन नहीं होता (3) देर से बच्चा देता है (4 ) जनन में परिशानियाँ आतीं हैं (5 ) फिर से गाभिन होने में देरी लगती है या जानवर बांझ बन जाता है (6) जानवर अपनी पूर्ण क्षमता तक दूध नहीं दे पाता और अंततः बिक जाता है या बीमार या बांझ होकर मर जाता है। ये सब कुछ तब हो रहा है जब डेयरी व्यवसायी, बैंक और नोडल एजेंसियां जानते हैं कि डेयरी व्यवसाय में मलाई वो खाता है जो अपने दूध को सीधे उपभोक्ता तक पहुंचता है।


भारत में छोटे किसान दुधारू जानवर को दूध से सुखाने का प्रयत्न नहीं करते, वो अंत तक उसका दूध लेते रहते हैं, जिससे जानवर के पेट में पल रहा बच्चा कुपोषित होकर कमजोर पैदा होता है। यह कमजोर बच्चा यदि नर हुआ तो पशुपालक के यहाँ दुख और यदि मादा हुआ तो खुशियां लाता है। परंतु ये खुशियां आगे चलकर परेशानी लाने वाली होतीं हैं। किसान इस मादा बच्चे को भी ठीक से चारा-चूनी नहीं खिलाता (क्यूंकि वो केवल दूध दे रहे जानवरों को ही प्राथमिकता देता है), जिसके कारण बछिया वयस्क होने और गाभिन होने में समय लगाती है और कई बार गाभिन भी नहीं होती। कुपोषण के कारण उसका जननांग पूर्ण रूप से विकसित ही नहीं हो पाता। यही प्रक्रिया सभी दुधारू पशुओं के साथ चलती रहती है और अंततः फार्म के पशु बिकते जाते हैं । यही कारण है कि ज्यादातर ऐसे पशु पालक, सफल दुग्ध व्यवसायी नहीं बन पाते या यदि एक्के दुक्के बनते भी हैं, तो कम से कम 5-6 वर्ष के संघर्ष के बाद।


एक सफल डेयरी व्यवसाई अपने फार्म उत्पादन को सीधे उपभोक्ता तक पहुंचता है। वो अपने जानवर की प्रजनन क्षमता को लंबे समय तक बनाए रखता है, जानवर के क्षमता के अनुसार दुग्ध उत्पादन करता है और अपने फार्म के सारे खर्चे निकाल कर (कर्ज का व्याज दे कर) लाभ अर्जित करता है। वह समझता है कि दूधारू जानवर एक प्रकार का प्रकृति द्वारा दिया वरदान है जो घास, चूनी, चोकर, आदि खाकर अमृत जैसा दूध देता है। दुधारू जानवर ही उसके व्यवसाय को चलाने वाला वह मशीन है, जिसे वो सबसे अधिक महत्व देता है। इन सभी कार्यों के लिए उसे समुचित जमीन और धन की आवश्यकता होती है। धन यदि उसका अपना हो तो ठीक, नहीं तो बैंक के ऋण की व्यवस्था करनी पड़ती है, जो एक कठिन कार्य है।


जबतक आपके फार्म से रोज 400-500 लीटर से अधिक दुग्ध उत्पादन नहीं होता, तबतक आप अपने फार्म के दुग्ध को दूसरी डेयरी को बेचने के लिए आश्रित रहेंगे। यदि 20 गायों का एक डेयरी फार्म खोलना हो तो केवल गायों की कीमत के लिए 15.00 लाख और 50 गायों के लिए 37.50 लाख होगी, अन्य कैपिटल लागत और नित्य के खर्च अलग। क्या आप इतना धन लगाकर, 200 या 300 लीटर दूध उत्पादित करके, उसे किसी निकट के डेयरी में बेंचकर एक दुग्ध-उत्पादक ही बनकर रह जाना चाहेंगे? क्या आपके द्वारा व्यवसाय में लगाए गए धन की वापसी एक या दो वर्षों में हो पाएगी? कभी नहीं। एक सफल फार्म लगाने और दुग्ध व्यवसायी बनने के लिए कितने धन की आवश्यकता होती है, और उसपर आपको कितनी अनुदान राशि मिलेगी, नीचे टेबुल-1 में देखें, जिसमें रोज़ का खर्च शामिल नहीं किया गया है ।


टेबुल 1: बीस या 50 दुधारू पशु का एक फार्म लगाने में अनुमानित लागत और सब्सिडी

उपरोक्त टेबुल में सब्सिडी 20 और 50 जानवरों के फार्म पर दिखाई गई है, जो नाबार्ड के फॉर्मेट के अनुसार केवल 10 जानवरों तक ही मिलेगी। अब तो शायद नाबार्ड योजना में कोई भी सब्सिडी की व्यवस्था नहीं है। अतः अपने निकटतम बैंक से संपर्क करें, जिसमें ग्रामीण बैंक ठीक रहेगा।


एक सफल डेयरी व्यवसायी अपने व्यवसाय में निवेशित धन की वापसी एक या दो वर्षों में कर लेता है, जिसे हम ब्रेक-ईवन कहते हैं। वो अपने सारे खर्चे निकाल कर समुचित लाभ अर्जित करता है और व्यवसाय को निरंतर चलते रहने के योग्य बनाए रखता है। उसका फार्म प्रबंधन “बेंच-मार्क” के अनुसार होता है, वो कम उत्पादन वाले जानवरों को फार्म से निकालता रहता है और अधिक उत्पाद वाले जानवरों को फार्म में लाता रहता है और उनके राशन को हमेशा उनके दूध उत्पादन के अनुसार संतुलित बनाए रखता है। वो फार्म में उत्पन्न बछियों और वयस्क जानवरों को बेंचकर देश के पशुधन में वृद्धि भी करता है। आज क्या कारण है कि हमारे यहाँ की गायें (देशी या क्रॉस-ब्रीड) अपनी पूर्ण क्षमता पर दूध नहीं दे पातीं? क्यूंकि उन्हे वर्ष भर संतुलित राशन (आहार) नहीं मिलता। बिना हरा चारा के जानवर को कभी भी स्वस्थ नहीं रखा जा सकता, ये बात सफल दुग्ध-व्यवसायी जनता है। एक सफल व्यवसायी अपने जानवरों को अपना असली धन मानता है और उन्हें सँजो कर रखता है।


सरकारी योजनाएँ और बैंक लोन:


नाबार्ड साइट पर जाएँ तो पता चलेगा कि अब तक सबसे ज्यादा उपयोग में आने वाली DEDS योजना दिनांक 27.08.2020 के सरकारी आदेश से बंद कर दी गई है। उसकी जगह नई नाबार्ड योजना 2022 ने ले ली है। इस नई योजना में भी मजदूर, अति छोटे, सीमांत किसानों को ही प्राथमिकता दी गई है।


पशुधन-ऋण योजनाएं भारत सरकार और राज्य सरकार दोनों के द्वारा समय समय पर घोषित की जातीं हैं। जिसकी सूचनाएं सरकारी माध्यम से सरकारी अमला को मिलतीं हैं, ये सरकारी अमला किसान से कितना जुड़ा रहता है, ये हम सब जानते हैं। अकसर बैंक अधिकारियों को तो इन योजनाओं की जानकारी तब मिलती है जब ऋण के लिए डेयरी व्यवसायी उनसे संपर्क करता है और योजना का नाम बताता है। आजकल “कियोस्क” का प्रचलन भी है, नेट पर भी योजनाएं प्रचारित की जातीं हैं, परंतु उनको समझ पाना, उन योजनाओं के लिए आवेदन कर पाना, आवेदन के द्वारा ऋण प्राप्त कर पाना, कितना आसान होता है, ये वही जनता है जो इस प्रक्रिया में घुसता है। ज्यादातर योजनाएं नेट पर रहतीं तो हैं परंतु कब शुरू हुईं कब समाप्त हो गईं, इसकी जानकारी नेट पर नहीं मिलती। पुरानी योजनाएं भी नेट पर आसन जमाए बैठी रहतीं हैं, जो शायद हटा ली गईं होतीं है या उनका किसी दूसरी योजना में विलय हो चुका होता है ।


ये योजनाएं, एक प्रकार से मध्यम डेयरी व्यवसाइयों के लिए अनुपयोगी ही होतीं हैं, क्यूंकि इनमे इतनी शर्तें होतीं हैं कि बड़े व्यवसायी को 2-4 करोड़ का ऋण नहीं मिल पाता। योजनाएं तो कई हैं, परंतु अंदर जाकर देखें तो हर एक में कुछ न कुछ रोड़ा जरूर होता है। ज्यादातर योजनाएं अति सूक्ष्म डेयरी पशुपालन के लिए ही होतीं हैं। जिसमें भूमिहीन, सीमांत, अति निम्न, निम्न और मझोले किसानों को 2,4,8, या 10 दुधारू पशु हेतु ऋण दिया जाता है। इसमें सब्सिडी भी मिलती है (टेबुल-1) देखें। डेयरी व्यवसायियों के लिए अब केवल बैंक से ऋण प्राप्त करने का विकल्प ही बच गया है (नाबार्ड योजना 2022 से कुछ उम्मीदें जरूर हैं, पर वह समय बताएगा)। बैंक-ऋण में राशि की कोई सीमा नहीं होती, इन्हें देना साधारणतया ब्रांच मैनेजर पर निर्भर करता है।


धरातल पर स्थिति:


अब थोड़ी सी जमीनी हकीकत की बात कर लेते हैं। इस ऋण का मुख्य रोड़ा होता है बैंक का ब्रांच मैनेजर, जो स्थानीय बैंक (जहाँ आपकी डेयरी स्थापित होने वाली है), के ब्रांच का प्रबंधक होता है। वो पहले से यह मान कर चलता है कि पशु-ऋण वापस नहीं आएगा। शायद वो बैंक के काम से इतना परेशान रहता है कि पशु-ऋण देना और उसके वापसी का झंझट पालना ही नहीं चाहता । जब भी डेयरी व्यवसायी ब्रांच मैनेजर से डेयरी लगाने की बात करता है तो वो दूर से ही हाथ खड़े कर देता है। डेयरी व्यवसाय के बैंकेबिलिटी जानने हेतु बनाए गए तकनीकी “प्रोजेक्ट रिपोर्ट” को समझने के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं होती, क्यूँकि एक कुशल ब्रांच मैनेजर, न तो “प्रोजेक्ट रिपोर्ट” देखता है न ही अपने ऐग्रिकल्चर सेक्शन तक उसे पहुँचने देता है। यानि, अधिकतर ब्रांच मैनेजर ही निर्णय लेता है कि ऋण से डेयरी स्थापित होने देना है या नहीं । “ऑन-लाइन” की बात क्या करें? कुछ योजनाओं के लिए ऑन-लाइन आवेदन की व्यवस्था भी दी गई है। “ऑन-लाइन” अप्लाइ करने के बाद भी तो आना बैंक के पास ही पड़ता है ।


ब्रांच मैनेजर की पशु-ऋण के प्रति उदासीनता जायज भी है। उसे भय रहता है कि ये खराब-ऋण (bad-debt) न बन जाए। क्यूंकि पशु-ऋण में झोल-झाल की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। कई डेयरी व्यवसायियों की आस्था ऋण में ज्यादा और डेयरी व्यवसाय में कम होती है, फिर बिचौलिये भी फिरते रहते हैं। डेयरी हेतु दुधारू पशु खरीदना भी एक दुरूह कार्य है (इसकी चर्चा हम अपने आर्टिकिल के भाग 2 में करेंगे)।


देश के डेयरी में शीर्ष संस्था एन.डी.डी.बी. को भी इस वर्ष (2022) केन्द्रीय सरकार ने आर.जी.एम. (राष्ट्रीय गोकुल मिशन) के अंतर्गत “Breed multiplication dairy farm” स्थापित करवाने हेतु नोडल अजेंसी बनाया है। ये उद्घोषणा वर्ष के शुरू में आनंद, गुजरात में हुई और किसानों से आवेदन भी मंगाए गए (जानकारी एन.डी. डी. बी. के साइट eoi.nddb.coop पर है), कई भावी और सफल डेयरी व्यवसाइयों ने आवेदन भी दिया और लाभ उठाया। इसमें 200 अथवा (31 जिलों के किसानो को 50) दुधारू पशु रख के डेयरी चलाने के लिए 2 करोड़ के ऋण की व्यवस्था है। हालांकि कई बार ऐसी संस्थाएं अपने उत्कृष्टता को बनाए रखने के लिए इतनी ज्यादा शर्तें लगा देतीं हैं कि योजना का क्रियान्वयन चींटी की चाल से चलने लगता है।


नाबार्ड (कृषि और ग्रामीण विकास बैंक) योजना:


नाबार्ड ने डेयरी-ऋण योजना में 2022 से बदलाव किया है। इसकी सूचना आपको नाबार्ड के पोर्टल www.nabard.com पर मिल जाएगी। (विस्तार के लिए हमारे आर्टिकिल का भाग 2 देखें)। बैंकों ने डेयरी व्यवसाय में “बड़े डेयरी-निवेशक”, जो 50-100-200 जानवरों की डेयरी स्थापित करना चाहता है, को कभी प्राथमिकता नहीं दी। मैं समझता हूँ कि यदि “प्रोजेक्ट रिपोर्ट” बैंक के कृषि-अनुभाग तक पहुँच जाए तो उसके बैंकेबिलिटी के आधार पर ऋण मिल भी सकता है। यह सब कुछ ब्रांच मैनेजर के द्वारा डेयरी-व्यवसाय के “प्रोजेक्ट रिपोर्ट” पर की गई संस्तुति पर निर्भर करता है। यहाँ यह जान लेना अवशयक है कि “प्रोजेक्ट रिपोर्ट” किसी तकनीकि डेयरी व्यवसाय के कंसल्टेंट से ही बनवाएँ, जो पशु के विषय में नहीं जनता वो भला “प्रोजेक्ट रिपोर्ट”क्या बनाएगा। यह भी जानना आवश्यक है कि नाबार्ड कभी भी स्वयं ऋण नहीं देता, वो केवल “री-फाइनैन्सिंग” करता है, जो किसी न किसी स्थानीय बैंकों के माध्यम से ही किया जा सकता है।


दोषी कौन है?


दोष केवल बैंक ऋण व्यवस्था या सरकारी योजनाओं के भूलभुलैया और उनके संचालन के मकड़-जाल में ही नहीं है, ऋण प्राप्त कर्ता और उसे फँसाने वाले बिचौलियों में जानवर खरीद में भी है। ऋण दिलाने के लिए एजेंट होते हैं, भाई यह तो एक व्यवसाय है और बैंकों का काम है व्यवसाय के लिए ऋण देना, परंतु फिर भी इसमें इतने झंझट क्यूँ? एजेंट के बिना काम क्यूँ नहीं होता? ये बिल्कुल वैसे ही है जैसे आप गाड़ी लेकर जा रहे हों और रास्ते में एक ट्राफिक वाला रोक दे, फिर आप जितने भी सही-सही पेपर दिखा दीजिए, वो तो कमी निकल ही देगा और अपना उद्येश्य पूरा कर ही लेगा। फिर आदमी सोचता है कि चलो देर करने से क्या फायदा, दे ले कर छुट्टी करो।ज़्यादातर बैंक ऋण व्यवसाय ऐसे ही चलता है।


अगली बात डेयरी व्यवसाइयों की ओर इंगित करती है। इस देश में ज्यादातर डेयरी व्यवसायी लोन मिलने तक ही योजना और प्रोजेक्ट में रुचि दिखाते हैं, लोन प्राप्त हो जाने के बाद वो अपने डेयरी व्यवसाय को किसी और के भरोसे छोड़ देते हैं। अरे भाई, आप अपना व्यवसाय (वो भी डेयरी का, जहाँ जीवित जानवर पले हैं, उनका दूध, जो केवल आपको 2 घंटे ही देता है व्यवस्था करने के लिए), किसी और के भरोसे कैसे छोड़ देंगे? पर नहीं, ज्यादातर व्यवसायी समझते हैं कि पैसा लगा दिया है, जानवर खरीद दिया है, शेड बना दिया है, चारा खरीद दिया है, ठेके पर लेबर लगा दिया है, अब तो दूध अपने आप बहेगा और लाभ भी उनकी झोली को भरता रहेगा। परंतु ऐसा होता नहीं है। और बाद में सुनने को मिलता है कि डेयरी व्यवसाय में लाभ नहीं है। डेयरी एक ऐसा व्यसाय है जिसमें (यदि योजनाबद्ध तरह से किया जाय तो सभी खर्चे निकाल कर) लाभ करीब 57-65% तक है, एक नहीं तो दो वर्षों में तो जरूर आपको “break-even मिल जाता है । जमीन की कीमत बढ़ती है वो अलग।


दबाव में बांटे गए छोटे लोन पर तो कई बार कोलैटरल भी नहीं लिया जाता। इन ऋणों की राशियाँ छोटी ही क्यूँ न हों, पर बैंक का एन.पी.ए. तो बढ़ ही जाता है। क्यूंकि उस बेचारे किसान के पास जानवर को खिलाने और पशु की रख रखाव करने का कोई साधन नहीं होता। वह जानवर कुपोषण या उचित समय पर डाक्टरी सहायता के बिना दूध अत्यंत कम कर देता है या बांझ हो जाता है या मर जाता है। इंश्योरेंस की कहानी भी हम सबको पता ही है कि कितने पापड़ बेलने के बाद ऋणी, बैंक के ऋण से उऋण हो पाता है (इंश्योरेंस पर जानकारी हेतु हमारा आर्टिकिल भाग 2 देखें)।


मैंने अपने लेखों और पत्र के माध्यम से सरकार का ध्यान इस विषय पर आकर्षित करना चाहा है। इस वर्ष नाबार्ड ने अपनी योजना में परिवर्तन किया है, जो सराहनीय है। क्यूँ बड़े व्यवसायी 100-300-500 करोड़ का लोन पा जाते हैं? जानवरों को खिलाने और रख रखाव की व्यवस्था नहीं रखने वाले किसानों/मजदूरों को छोटे मोटे ऋण सब्सिडी के साथ मिल तो जाता है, परंतु कई बार वो एन. पी. ए. बन कर रह जाता है, क्यूँ? महिला SHG के माध्यम से दिये जा रहे छोटे पशु-ऋण की रिकवरी 97% तक क्यूँ होती है? क्यूँ छोटे और मझोले डेयरी व्यवसायी (स्टार्ट-अप) 2-4 करोड़ ऋण के लिए घूमते रह जाते हैं? इसका जवाब हम सबको मिलकर खोजना होगा।


व्यवसाय के मानकों पर ही डेयरी चलना चाहिए:


देश के डेयरी व्यवसायी जानते हैं कि “Break-even”, “IRR”, “DSCR” या “ROI” प्रबंधन करके उचित लाभ कमाने के लिए एक निश्चित संख्या में दुधारू जानवर डेयरी फार्म में रखने ही पड़ते हैं। यदि मानकों के आधार पर डेयरी व्यवसाय चलाई जाये तो वो सतत चलती है। हम सब जानते हैं कि डेयरी-व्यवसाय लाभ में चलाने के लिए प्रतिदिन दूध की मात्रा (volume) बहुत माने रखती है। व्यवसायी के पास समुचित पूंजी और जमीन होनी चाहिए कि वो पशु को हमेशा संतुलित राशन दे सके, भरपूर हरा-चारा उगा सके, फार्म के पशु और अन्य उपकरणों का रख-रखाव कर सके, फार्म के दूध से बने उत्पादों को उपभोक्ता तक समय से पहुँचा सके, अपने ऋण की भरपाई समय पर कर सके, वर्किंग-कैपिटल और कैश-फ़्लो का प्रवंधन कर सके, सभी देन-दारियों को निपटाने के बाद उचित लाभ कमा सके, ताकि वो एक सफल डेयरी व्यवसायी बन सके और "अपना ब्रांड" स्थापित कर सके।


हम सभी जानते हैं कि इस प्रकार के भूमिहीन, सीमांत और छोटे किसानो (एक, दो, चार, दुधारू जानवरों वाले) के लिए बैंक-ऋण की व्यवस्था आज भी आवश्यक है, पर यह भी तो आवश्यक है कि भारत में भी उच्च स्तरीय, स्वचालित और विकसित देशों के समकक्ष, बड़े डेयरी फार्म स्थापित हों, जहाँ उच्च तकनीकि आर मानकों का ध्यान रखा जाता हो, फूड सैफ्टी, traceability का ध्यान रखा जाता हो। जो अच्छे “जर्म-प्लाज्म” वाले अधिक दूध देने वाले दुधारू पशु प्राप्त करने के केंद बन सकें। जहाँ से अच्छे नस्ल के दुधारू पशु खरीदने में सुविधा हो और जानवर के ट्रेड में से बिचौलिये कम हों। इन सबके लिए भी तो ऋण की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि भारत में भी स्वचालित डेयरी व्यवसाय स्थापित करना है तो ऋण के फॉर्मेट बदलने होंगे। सरकारें तो सकारात्मक सहयोग लेकर आगे आईं हैं, अब बैंक और नोडल एजेंसियों को अपने ऋण-व्यवस्था को सरल और सबके लिए सुलभ बनाना होगा। बैंक, नाबार्ड और एन.डी.डी.बी. चाहें तो इस ओर सोंच कर कारगर निर्णय ले सकते हैं। आज समय बदल गया है, IT, IIT, इंजीनियर, कृषि-विद, रियल इस्टेट वाले, पशु-चिकित्सक, आदि डेयरी व्यवसाय में उतर रहे हैं और सफल रूप से “स्टार्ट-अप” चला रहे हैं। ऋण-योजनाएं भले वातानुकूलित कमरों में बनें परंतु उनमें उनका क्रियान्वयन खेत में ही होगा। इसलिए उनका मत भी योजनाओं में शामिल किया जाय जो धरातल की सत्यता जानते हैं, (केवल अन्वेषण या पठन पाठन में न रहे हों) तो भारत में स्वचालित बड़े डेयरी व्यवसाय के विकास में गति आएगी । लिखना शायद गलत न होगा कि सरकारी योजनाओं को बनाने में अकसर उनका योगदान होता है जिन्होने किसी ऊंचे पद पर सरकारी विभाग में कार्य किया है और अब कार्यमुक्त हैं, या फिर जीवन भर रिसर्च में रहे हैं या फिर उच्च पीठासीन अधिकारी रहे हैं, जिन्हे धरातल के सत्य की जानकारी कम ही रहती है।


यह इसलिए भी अवश्यक है कि:


1. हमारे देश में प्रति-पशु-उत्पादकता बढ़े, जानवर समय से गाभिन हो और आसानी से बच्चा दे,

2. प्रजनन में उत्कृष्टता आए, जानवर खाली न रहे, बार बार बीमार न हो, बांझ न बने,

3. जानवर को हरा चारा (या विकल्प) वर्ष भर उपलब्ध हो, कुपोषण से पशु बीमार न हो,

4. उपभोक्ताओं को फार्म के स्वच्छ और शुद्ध (Un-processed) दूध से निर्मित उत्पाद प्राप्त हों,

5. बड़े स्वचालित डेयरी फार्म स्थापित हों, जहाँ फूड सैफ्टी, traceability का ध्यान रखा जा सके,

6. प्रति-पशु प्रति-ब्यांत दुग्ध उत्पादन बढ़े, ऐसे फार्म से देश में अच्छे नस्ल के जानवर उपलब्ध हों पायें,

7. डेयरी एक स्वतंत्र रूप से अन्य व्यवसायों की तरह चले, आदि।



रेफरेंस:

  1. नाबार्ड नई योजना 2022: www.nabard.com

  2. https://www.readermaster.com/nabard-yojana/#___2022

लेखक: डॉ पी के श्रीवास्तव, डेयरी व्यवसाय कॉन्सल्टेन्ट, डेयरी कॉन्सलटेंसी, बैंगलोर;

Email: pkshrivastava54@gmail। com; site:www.dairyconsultancy.in

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